क्या पशु कल्याण के प्रयासों से माँस के सेवन में कमी आती है?
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हम सभी, लोगों को माँस का सेवन कम करने की बात मनवाने के लिए किसी “जादुई समाधान” की तलाश में हैं। आज तक कई प्रयासों ने भोजन विकल्पों (परोक्ष दबाव डालना) के लिए व्यवहारिक संकेतों को बदलने, निजी स्वास्थ्य या पर्यावरण की स्थिरता के संदर्भ में ध्यान केंद्रित किया है। लेकिन क्या पशु कल्याण की माँग हमारी सोच से कहीं अधिक शक्तिशाली है? बिल्कुल है, वास्तव में मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के तर्क से पता चलता है कि पशु कल्याण को लक्षित करने वाले उपाय कम प्रभावी नहीं होते हैं बल्कि कई अलग-अलग प्रक्रियाओं के माध्यम से काम करते हैं।
लोग आमतौर पर अपनी उम्र के लोगों के समूह में घुलना-मिलना और फ़िट होना चाहते हैं। इसलिए, एक दृष्टिकोण जो यह समझाता है कि कैसे कम माँस खाना सही है और दूसरों के विचार से मेल खाता है, व्यवहार को सफलतापूर्वक बदल सकता है। एक अन्य विकल्प है अलग-अलग जानवरों को एक नाम और एक चेहरा देकर “मानवीकरण” करना। फैक्ट्री फार्मिंग पर अव्यक्तिगत आँकड़ों की तुलना में किसी एक जानवर को होने वाले नुकसान पर विचार करना अधिक शक्तिशाली हो सकता है। आहार परिवर्तन को बढ़ावा देने का तीसरा तरीका है पौधे आधारित भोजन के लिए ठोस सुझाव देना। ऐसा करने से बाधाएँ दूर हो जाती हैं और लोगों के लिए नए व्यवहार को अपनाना आसान हो जाता है। वे तरीके जो माँस खाने से नैतिक या शारीरिक घृणा पैदा करते हैं या वी*न आहार आंदोलन का हिस्सा होने के लाभों को उजागर करते हैं, वे भी काफ़ी सफ़ल रहे हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पशु कल्याण उपचार की प्रभावकारिता के बारे में अधिक जानने के लिए 100 परीक्षणों को शामिल करते हुए 34 पेपरों की एक व्यवस्थित समीक्षा और मेटा-विश्लेषण किया। 2010 से वर्तमान तक, स्रोतों में अकादमिक प्रकाशन और ग्रे साहित्य दोनों शामिल हैं। 24,817 व्यक्तियों पर अध्ययन ने माँस के सेवन या ख़रीदारी पर विभिन्न दृष्टिकोण के प्रभावों की जाँच की। इसमें 11 देशों से डेटा एकत्र किया गया था जिसमें कनाडा, चीन, चेक गणराज्य, इक्वाडोर, फ्रांस, जर्मनी, भारत, नीदरलैंड, पुर्तगाल, स्कॉटलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
इन हस्तक्षेपों के उदाहरण में फैक्ट्री फ़ार्मिंग की स्थितियों के बारे में पत्रक प्रदान करना, अखबारों में छपे फ़र्ज़ी लेख या माँस के व्यंजनों के साथ-साथ उन जानवरों की तस्वीर दिखाना जिनसे उसे बनाया गया है, शामिल हैं । दो-तिहाई अध्ययनों में, ये उपाय पाँच मिनट से भी कम समय तक टिक पाए थे। शोधकर्ताओं ने अनुवर्ती अवधि और अन्य विशेषताओं जैसे पुरुष प्रतिभागियों की संख्या के आधार पर भी प्रभावों का अनुमान लगाया। पूर्वाग्रह के जोखिम, जैसे प्रकाशन पूर्वाग्रह या सामाजिक वांछनीयता पूर्वाग्रह की भी जाँच की गई। डेटा सेट का हिस्सा बनने के लिए, अध्ययन को इसमें एक नियंत्रण समूह को भी शामिल करना पड़ा।
57% अध्ययनों ने लोगों द्वारा ख़ुद रिपोर्ट किए गए व्यवहार का आकलन किया जबकि 41% ने बताया कि वे भविष्य में क्या करेंगे। सिर्फ 2% ने व्यक्तियों की प्रतिक्रियाओं का वस्तुपरक मूल्याँकन किया। कुल मिलाकर, 71% अध्ययनों में हस्तक्षेप कुछ हद तक सफ़ल रहे लेकिन अल्पावधि के लिए। औसतन, प्रतिभागियों के माँस खाने या ख़रीदने की संभावना में 22% की कमी आई थी। दिलचस्प बात यह है कि “वीगन आहार अपनाओ” सिफ़ारिश का उन लोगों की तुलना में अधिक प्रभाव पड़ा था, जो शाकाहारी होने या माँस का सेवन कम करने का सुझाव दे रहे थे।
लेखकों ने उन पूर्वाग्रहों का पता लगाने के लिए डेटासेट पर संवेदनशीलता विश्लेषण भी किया, जो रिपोर्ट किए गए परिणामों को प्रभावित कर सकते थे। इसमें प्रकाशन पूर्वाग्रह ना के बराबर प्रतीत हुआ और सामाजिक वांछनीयता पूर्वाग्रह जिसके कारण लोग अपने माँस की खपत को कम करके बताते हैं, परिणामों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित नहीं करते हैं।
लेखक भविष्य के अध्ययन के लिए कई सुझाव प्रदान करते हैं जो पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के काम आ सकते हैं। वे भविष्य के शोधकर्ताओं को वर्तमान उपचारों में कड़ाई और सावधानी बरतने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। प्रयोगकर्ताओं को स्व-रिपोर्टों के बजाय प्रत्यक्ष व्यवहार संबंधी अवलोकन या अन्य निष्पक्ष रूप से मापे गए डेटा का उपयोग करना चाहिए। यह देखने के लिए कि इसका प्रभाव कितने समय तक रहता है अध्ययनों को इन उपायों के बाद लंबे समय तक परिणाम के डेटा भी एकत्र करने चाहिए। इसके साथ ही, सिर्फ़ यह देखने के बजाय कि माँस कितनी बार ख़रीदा गया है, इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वह कितनी मात्रा में खाया और ख़रीदा गया है। ये सुधार हमें इस बारे में अधिक भरोसेमंद जानकारी देंगे कि वास्तव में माँस की खपत को प्रभावित करने के लिए क्या काम करता है और बदले में हम अधिक सफ़ल अभियान तैयार कर पाएँगे। यह हमें पशुओं की पीड़ा को समाप्त करने के एक क़दम और करीब ले जाएगा।
https://doi.org/10.1016/j.appet.2021.105277
