भारत में पशु अधिकारों का इतिहास
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सदियों से भारतीय धर्मों ने जानवरों को बहुत महत्व दिया है। प्राचीन हिंदू ग्रंथअहिंसा (हत्या/चोट नहीं पहुँचाना) के सिद्धांत का समर्थन करते हैं। नतीजतन, वैदिक धर्म में पशु बलि वर्जित थी। कई हिंदू ग्रंथ शाकाहार को मोक्ष की प्राप्ति (आत्मा की मुक्ति) के लिए आवश्यक मानते हैं और ब्राह्मण तथा पुरोहित वर्ग पीढ़ियों से शाकाहारी रहे हैं। हिंदुओं का मानना है कि कई जानवर देवताओं के साथी या वाहन हैं, इसलिए पूजनीय हैं। जैन धर्म और बौद्ध धर्म ने भी हमेशा अहिंसा और करुणा की सीख का प्रचार किया है।
विशेष रूप से, गायों को हिंदू, जैन और बौद्ध अति पवित्र मानते हैं। अधिकांश भारतीय राज्यों में गोहत्या प्रतिबंधित है। कई बार गोहत्या के कारण दंगे भी हो जाते हैं। पिंजरापोल नामक सेवानिवृत्ति सुविधाओं में, जैन और हिंदू बड़ी श्रद्धा से उन गायों की देखभाल करते हैं जो दूध देने में असमर्थ हो जाती हैं ।
इस लेख के लेखक के अनुसार, उत्तर भारत में इस्लामी शासन के परिणामस्वरूप भारत के माहौल में बदलाव होने लगा था। मुसलमान माँस खाते थे और इस्लामी शासक नियमित रूप से शिकार करते थे और कई जंगली जानवरों को मार देते थे। हालाँकि, इस्लामी शासकों ने कभी-कभी जानवरों के प्रति दया भी दिखाई थी: उदाहरण के लिए, बाद के कई इस्लामी शासकों ने गोहत्या पर रोक लगा दी थी।
भारत में जानवरों की दुर्दशा ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बढ़ गई थी। भारत में पहला बूचड़खाना 1760 में अंग्रेज़ों द्वारा बनाया गया था, जिसकी संख्या1910 तक 350 हो गई थी। अंग्रेज गायों से संबंधित पारंपरिक हिंदू मान्यताओं का सम्मान नहीं करते थे। लेखक के अनुसार, 1857 में, उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को सुअर और गाय की चर्बी से लिपटे कारतूसों को चाटने के लिए मजबूर किया था। इसके साथ ही, उन्होंने मुसलमानों को गोमाँस खाने और लोगों को जंगली जानवरों का शिकार करने के लिए भी प्रोत्साहित किया था, अक्सर मारे गए प्रत्येक जानवर के एवज में लोगों को धन भी दिया जाता था। अंग्रेज़ भारतीय कुत्तों को नापसंद करते थे क्योंकि वे अंग्रेज़ी नस्ल के कुत्तों के साथ प्रतिस्पर्धा करते थे, इस वजह से उन्हें बड़ी संख्या में मार दिया गया था।
1860 में ब्रिटिश राज ने अपना पहला पशु अधिकार कानून बनाया। इस कानून ने पशुओं पर हो रहे अत्याचार पर प्रतिबंध तो लगाया, लेकिन शोषित पशुओं के आश्रय के लिए धन उपलब्ध नहीं कराया था। 1861 में, पशुओं के प्रति क्रूरता की रोकथाम के लिए भारत की पहली सोसायटी का गठन किया गया।
स्वतंत्रता के बाद, भारतीय संसद ने 1962 में देश का पहला पशु अधिकार कानून पारित किया। इस अधिनियम ने भारतीय पशु कल्याण बोर्ड की स्थापना की, जिसने पशु कल्याण को नियंत्रित करने वाले नियमों का मसौदा तैयार किया। अगले पचास सालों में, बोर्ड और संसद ने पशुओं की रक्षा के लिए कई कानून बनाए। भारत में कानून, बूचड़खानों, जानवरों के प्रदर्शन, जानवरों के परिवहन और पशुओं पर होने वाले प्रयोगों को नियंत्रित करते हैं। बाघ की खाल और दवा के लिए बाघ की हड्डियों की माँग के कारण, विलुप्ति के कगार पर इस प्रजाति को 1972 के वन्य जीव संरक्षण अधिनियम द्वारा संरक्षित किया गया। 2001 में, चालीस सालों की सक्रीय पैरवी के बाद, भारत ने लावारिस कुत्तों की आबादी को नियंत्रित करने के लिए उन्हें मारने के बजाय ‘कैच-एंड-न्यूटर कार्यक्रमों’ (इसमें जानवरों को मानवीय तरीके से पकड़कर पशु चिकित्सक से टीका लगवाया जाता है और दोबारा उनके स्थानीय इलाके में छोड़ दिया जाता है) और रेबीज़ टीकाकरण का उपयोग करने की शुरुआत की।
1976 में, प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने भारत सरकार और उसके नागरिकों को पर्यावरण और वन्य जीवन की रक्षा करने की क्षमता प्रदान करने के लिए, भारतीय संविधान में संशोधन किए। यह संशोधन लोगों को पशु क्रूरता के ख़िलाफ़ वकालत करने में मदद करते हैं। दुर्भाग्य से, इस मामले में भारत को अभी भी लंबा सफ़र तय करना है। भारत सालाना लगभग 60 लाख मेट्रिक टन माँस और 75 अरब अंडे का उत्पादन करता है। भारत का नाम दुनिया के पाँचवें सबसे बड़े अंडे उत्पादक और पंद्रहवें सबसे बड़े ब्रॉयलर (मुर्गी जिसे विशेष रूप से माँस उत्पादन के लिए पाला जाता है) उत्पादक के रूप में शुमार है। यहाँ तक कि गायों का भी शोषण किया जाता है। भारत में बड़े पैमाने पर भारी मात्रा में दुग्ध उत्पादन होता है, जिसमें बछड़ों को उनकी माँ से अलग करने जैसी अमानवीय प्रक्रिया शामिल है। 2001 में, भारत ने 40 लाख मेट्रिक टन गोमाँस का उत्पादन किया था। लेखक इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि औद्योगिक खेती पारंपरिक भारतीय मूल्य, अहिंसा का पालन नहीं करती है और इसके विपरीत है।