भारतीय कहते हैं कि वे माँस नहीं खाते हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति कुछ अलग है
This post has been translated from English to Hindi. You can find the original post here. Thanks to Tipping Point Private Foundation for generously funding this translation work.
भारत को मुख्यतः शाकाहारी देश माना जाता है। लगभग 80% भारतीय हिंदू धर्म का पालन करते हैं, जिसकी मूल शिक्षाओं में सभी जीवों के प्रति करुणा और अहिंसा का भाव रखना शामिल है। इसके साथ ही, जैन और बौद्ध धर्म भी काफ़ी लोकप्रिय हैं और समान विचारों का पालन करने पर ज़ोर देते हैं। लेकिन, हालिया जनगणना के अनुसार केवल 30% भारतीयों ने ख़ुद को पूर्णतः शाकाहारी बताया है। इनमें से लगभग तीन-चौथाई लैक्टो-शाकाहारी (जो व्यक्ति माँस और अंडे खाने से परहेज़ करता है) हैं और एक चौथाई लैक्टो-ओवो-शाकाहारी आहार (जो व्यक्ति सब्ज़ियाँ, अंडे और डेयरी उत्पाद खाता है लेकिन माँस नहीं खाता है) लेते हैं। ओईसीडी (OECD) के आँकड़ों के अनुसार, वर्तमान में भारतीय सालाना लगभग तीन किलो माँस खाते हैं, जो कि वैश्विक औसत से काफ़ी कम है। वास्तव में, दुनिया भर में सबसे तेज़ी से बढ़ते चिकन बाजारों में से एक नाम भारत का है।
एक समूहवादी समाज व्यस्वस्था में, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इन नियमों का अनुपालन शांति को बढ़ावा देता है और किसी भी प्रकार के टकराव या विरोध से बचाव करता है। क्योंकि यहाँ माँस के सेवन को वर्जित माना गया है, इसलिए इन नियमों को तोड़ने से शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है या सामाजिक बहिष्कार, दुर्व्यवहार या सार्वजनिक अपमान का सामना करना पड़ सकता है। भारतीयों ने इस व्यवहार संबंधी अपराध को विशेष नाम भी दिया है, “नॉन-वेज या माँसाहारी”, जो माँस और इससे जुड़े पाप या क्रूरता को दिखाता है। बहरहाल, शहरी क्षेत्रों में बढ़ती आबादी, अधिक ख़र्च करने योग्य आय और विभिन्न प्रकार के व्यापक सांस्कृतिक संपर्क, पूरे भारत में माँस की खपत में हो रही वृद्धि का कारण बनते जा रहे हैं।
इन विरोधाभासों को बेहतर ढंग से समझने के लिए, शोधकर्ताओं ने शहरों में रहने वाले 23-45 उम्र के 33 भारतीयों के माँस खाने की आदत पर अध्ययन किया। इनमें से 25 प्रतिभागियों का घर मुंबई में था, जबकि 8 हाल ही में सिडनी, ऑस्ट्रेलिया आए थे। शोधकर्ताओं ने “फ्रंट स्टेज,” यानी लोगों के सामने खुलकर खाना, बनाम “बैकस्टेज,” यानी अकेले में छुपकर माँस खाने की आदतों के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए अर्ध-संरचित साक्षात्कार का उपयोग किया। इसके अलावा, उन्होंने यह भी पता लगाया कि ये उपभोग व्यवहार कैसे बदल रहे हैं और कौन से सामाजिक-सांस्कृतिक कारक इन बदलावों को प्रभावित कर रहे हैं।
परिणामों से पता चला कि एक ओर जहाँ माँस की खपत बढ़ रही है, वहीं इस आदत के साथ अभी भी सामाजिक शर्मिंदगी जुड़ी हुई है। इसलिए, जब खाने की बात आती है तो व्यक्ति लोगों के सामने और निजी तौर पर अलग-अलग तरह का व्यवहार करता है। जैसे, अगर वह माँस खाता है तो वह अकेले में छुपकर माँस खाता है और सार्वजनिक रूप से अपनी शाकाहारी पहचान बनाए रखता है। माँस खाने को लेकर सबसे कठोर आलोचना परिवार के सदस्यों की ओर से आती है। नतीजतन, घर के बाहर रेस्तरां में या घर के किसी अलग-थलग या निजी स्थान में छुपकर माँस खाया जाता है। जैसे, एक प्रतिभागी ने बताया कि वह अपनी माँ से दूर बेसमेंट में अंडे पकाता है क्योंकि उसकी माँ बेसमेंट में आने-जाने के लिए सीढ़ियों का उपयोग नहीं कर सकती हैं।
इसके अलावा, शहरों में रहने वाले भारतीय अपने परिवार से दूर रहते हैं, जिससे उन्हें बड़े शहर में अधिक विविध और “पश्चिमी” भोजन चखने के कई अवसर मिल जाते हैं। लेखक बताते हैं कि भारत के कई लोग माँसहार के साथ-साथ पश्चिमी परंपराओं और आदतों को अपनाने के इच्छुक हैं। एक प्रतिभागी ने तो यहाँ तक कहा कि “आधुनिक और आगे की सोच रखने वाला” के बजाय “पारंपरिक” कहा जाना अपने आप में एक सामाजिक अपमान माना जाने लगा है।
ये परिणाम पशु कल्याण कार्यकर्ताओं को निराशाजनक लग सकते हैं। लेकिन लेखक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि पशु कल्याण और शाकाहारी भोजन के समर्थकों के पास इस प्रचलन को पलटने का मौका है। भारतीय धर्मों ने सदैव ही अहिंसा की भावना को बहुत महत्त्व दिया है, जिसे पशु कल्याण समर्थक ऐसे मुहीम की शुरुआत करने के लिए उपयोग कर सकते हैं जो पश्चिमी पशु कृषि व्यवसाय की भयावह क्रूरता को दिखाते हों। साथ ही, वे पश्चिम में पौधे आधारित व्यंजनों की बढती लोकप्रियता के बारे में बताकर, इसे फ़िर से “कूल” बनाने की कोशिश कर सकते हैं। आज युवा भारतीय उपभोक्ता अपने देश के कई पुराने रीति-रिवाज़ों को अस्वीकार कर रहे हैं, लेकिन अगर उन्हें माँस उत्पादन की वास्तविकता और आधुनिक पौधे आधारित आहार और जीवन शैली को अपनाने के साधन के बारे में जानकारी दी जाए, तो वे माँस छोड़ने के लिए तैयार हो सकते हैं। इससे पहले कि माँस की लोकप्रियता भारतीय समाज में अधिक दूर तक फ़ैलकर उसे अपनी गिरफ़्त में जकड़ ले, हमें जल्द से जल्द ठोस कदम उठाने की ज़रुरत है।
